Saturday, February 28, 2009

21 वीं सदीं के व्यंग्यकार:

बीसवीं सदी में हिंदी व्यंग्य की समृद्ध परम्परा रही है जिसे अंतिम और निर्णायक रुप से परसाई युग मान लिया गया। इस बीते युग ने हिंदी व्यंग्य की जो पुख्ता जमीन तैयार की है उस जमीन पर खड़े रहना भी बाद की पीढ़ी के व्यंग्य लेखकों के लिए एक बड़ी चुनौती है। आज जब इक्कीसवी संदी का एक दषक निकलने को है तब आज के सक्रिय व्यंग्यकारों के लिए लिखने का मतलब है अपनी दमदार पुरखौती के सामने खड़े होना। कविता की ही तरह यह विकट चुनौती व्यंग्य लिखने वालों के सामने भी है। कुछ इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर व्यंग्य का यह स्तंभ ’21वीं सदीं के व्यंग्यकार’ शुरु किया जा रहा हैै जिसमें हम आज के सक्रिय व्यंग्यकर्मियों को लगातार छापने के बहाने व्यंग्य की आगे की संभावनओं को तलाषने का भी यत्न करेंगे। हर लेखक की रचना हमें ज्ञान चतुर्वेदी की ही पंक्ति में खड़े चर्चित व्यंग्यकार विनोद साव के सौजन्य से प्राप्त होगी उनकी अपनी माकूल टिप्पणी के साथ। इस पहली कड़ी की शुरुवात हम ज्ञान चतुर्वेंदी के व्यंग्य से कर रहे हैं।

ज्ञान चतुर्वेंदी व्यंग्य साहित्य में पिछले दो दषकों से सक्रिय हैं हिंदी व्यंग्यकारों की भीड़ में ज्ञान का लेखन तकरीबन ’ए फेस एबव द क्राउड’ की तरह है। हिंदी व्यंग्य अपनी विरासत को और कितना समृद्ध कर पाया है यह चर्चा बाद में होगी पर प्रकाषन की दृष्टि से ज्ञान चतुर्वेदी समृद्ध हुए हैं और फिलहाल पत्र पत्रिकाओं में छाए हुए हैं। इसमें सन्देह नहीं कि ज्ञान ने बगैर आलोचकों के समर्थन के अपनी जमीन को खुद पुख्ता किया है। कथ्य, भाषा और शैली के स्तर पर भी वे एक प्रयोगधर्मी लेखक बनकर उभरे हैं। उनकी भाषा में एक खास किसम का दरदरा पन है। लगता है वे बिगड़ी हुई शक्तियों पर बघनखा पहनकर मार करना चाहते हैं। वह भी उनकी छाती पर सवार होकर बघनखे से उनकी छाती खुरचते हुए। उनका यही निजी और मौलिक दरदरापन उन्हें अपने समय के लेखकों से अलग खड़ा करता है उन्हें अपनी ज्यादा प्रभावकारी मुद्रा में। व्यंग्य लिखते समय उनमें एक खास किसम की मस्ती भी होती है, उनकी इसी मस्ती से भरी हुई एक रचना ’हिंदी में मनहूस रहने की परंपरा’ उदंतीÛकाॅम के पाठकों के लिए यहां प्रस्तुत है।
Û विनोद साव

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