Saturday, May 30, 2009

खतोकिताबत पर बड़ा भरोसा था उन्हें

(07272) 256311 नईम, 7/6, राधागंज, देवास 455001 प्रिय भाई विनोद
परसाई जी पर हंस में पढ़ते हुए मन हुआ कि ख़त लिखा जाये क्योंकि निरंजन महावर के हवाले से शीर्षक उठाया गया है और बात भी सच है। तुम्हारे इस खुले स्वीकार में जो नाम आये वो कमोवेष सब मेरे परिचित और आत्मीय हैं कारण परसाई जी ही है। हाॅ भाई महावर मेरे सीनियर और होस्टलमेट रहे सागर विष्वविद्यालय में। उस समय एक ही विष्वविद्यालय हुआ करता था। परसाई जी के मार्फत शरद भाई से जुड़ा था और ये जुड़ाव कुछ ऐसा हुआ कि आज तक पोषोड़ी नहीं फटी। शरद भाई मेरे हम जुल्फ़ (साढ़ू) थे। शरद भाई के गुजरने के बाद पुरसे का ख़त मैंने परसाई जी को लिखा था। परसाई जी मेरे जबलपुर के थे और शरद भाई से भोपाल में मुलाकात हुई थी। बीच में तकरार भी रही लेकिन परसाई जी ने नईम को नईम की तरह देखा।
व्यंग्यकारों की जमात खड़ी हो गई मध्यप्रदेष में। मुक्तिबोध, भाऊ समर्थ के संसर्ग से भी अछूते लोग नयी पीढ़ी के नहीं रहे।
बहरहाल आज इतना ही। राजनांदगांव दुर्ग गुजर कर रायपुर आया गया हूं दुर्ग रुकना नहीं हुआ और अब ख़त से पहुंच रहा हॅंॅूं,
हस्ताक्षर 9.9.8 नईम नईम साहब का यह पत्र मुझे तब प्राप्त हुआ जब ’हंस’ अगस्त’08 के अंक में उन्होंने मेरा एक आलेख पढ़ा। हंस में वह आलेख ’जिन्होंने मुझे बिगाड़ा’ स्तम्भ के अंतर्गत ’डुबोया मुझको परसाई ने’ शीर्षक से छपा था। जिसे पढ़कर उन्होंने प्रतिक्रिया के रुप में उपरोक्त पत्र लिखा था। उसके बाद उनके दिए हुए फोन नम्बर पर उनसे एक लम्बी बातचीत भी हुई थी। तब उन्होंने कहा था कि जो बातें आप मुझसे कह रहे हैं वे ख़त में लिखकर भी मुझे भेजें तब मैंने ऐसा ही किया था।
ख़तो-किताबत पर कितना भरोसा था नईम साहब को ! खतो-किताबत इन शब्दों को जानते हुए भी इन्हें पहली बार नईम साहब से ही सुना। उनके एक ही पत्र से यह जाहिर होता है कि वे ख़तो-किताबत यानी पत्र-व्यवहार के प्रति कितने संजीदा इन्सान थे। अमूमन आज फोन और मोबाइल के इस समय में यह चलन बहुत कम हो गया है वरना एक समय तो जवाबी पोस्टकार्ड का चलन भी था और डाक घर वाले जवाबी पोस्ट कार्ड भी छापा करते थे। उस समय आत्मीय पत्र-व्यवहार की ललक रखने वाले लोग जवाबी पोस्ट कार्ड भी भेजा करते थे। यदि डाक घर का मुद्रित जवाबी पोस्ट कार्ड न हो तो सामान्य पोस्टकार्ड पर जवाबी पोस्टकार्ड लिखकर और उसे अपने पत्र के साथ नत्थी कर भी भेजा करते थे। तब वह जवाबी कार्ड पावती का काम भी कर लेता था और उस पर अपने प्रियजन की लिखी मीठी मीठी बातें भी भेजने वाले तक पहुंच जाती थीं।
उस समय के कई प्रसिद्ध लेखक भी पत्र-व्यवहार को बड़े शौक मिजाजी से पूरा करते थे। कई रंगों के मोहक कागज और लिफाफे व अंतरदेषीय वे रखा करते थे। रंगीन कलमों से उन पत्रों को अपनी लेखनी से सुसज्जित किया करते थे फिर आकर्षक डाक टिकट लगा कर उसे बड़े रुमानी ढंग से प्रेमीजनों को भेजा करते थे। इनमें लोकप्रिय कथाकार कमलेष्वर भी थे।
नईम साहब अपने इस पत्र में आत्मीय और बौद्धिक लगते हैंे। पत्र के माध्यम से वे अपने रिष्तों को जीवन्त बनाने की कोषिष करते हुए से लगते हैं।
मैंने नईम साहब की यह चिट्ठी पाते ही अपने प्रिय मार्गदर्षक रमाकांत श्रीवास्तव को फोन लगाया और बताया। वे छूटते ही बोले कि ’नईम साहब खतोकिताबत के बड़े हिमायती हैं। और मैं नईम को हिन्दुस्तान के पांच बड़े गीतकारों में से एक मानता हूं।’
दमोह के किसी प्रेमी पाठक गफूर तायर का पत्र मिला है। उन्होंने पन्द्रह साल पढ़े मेरे उपन्यास ’चुनाव’ के अंष को व्यंग्य की एक पत्रिका में पढ़कर याद किया है। यह पहली बार हुआ जब किसी पाठक ने मुझे ’तुम’ कहकर पत्र में जगह जगह सम्बोधित किया है। मुझे लगा कि वे कोई उम्र दराज इन्सान होंगे। उनके दिए मोबाइल नम्बर पर मैंने उनसे बात की तब मेरा अनुमान सही निकला। वे रिटायर्ड लेक्चरर हैं। उन्होंने बातचीत के दौरान बताया कि नईम साहब की बिटिया नईम की स्मृति में कुछ पत्र आदि संजोने का काम कर रही हैं। आप उन्हें कुछ सामग्री भेज दें। मैंने नईम साहब की बिटिया डाॅ. समीरा से बात की। उन्होंने इस पर अपनी सहमति जताई और मुझे कुछ भेजने के लिए कहा। तब यह छोटा सा संस्मरण जैसा कुछ लिखा है। फोन पर समीरा जी से बातचीत करने पर ऐसा लगा कि उन्हें साहित्य और साहित्यकार समाज के समीकरणों की बड़ी पकड़ है। साथ ही अपने पिता के साहित्यिक व्यक्तित्व के बारीक रेषों की भी उन्हें गहरी समझ है।
नईम शरद जोषी के साढ़ू थे, पत्र में उन्होंने लिखा भी है कि ’शरद भाई मेरे हम जुल्फ़ (साढ़ू) थे।’ इधर दुर्ग मे ंहम लोग लगभग बीस बरस से ’षरद जोषी स्मृति प्रसंग’ का आयोजन करते आ रहे है। जब भिलाई में पुदमलाल पुन्नालाल बख्शी सृजनपीठ के अध्यक्ष प्रसिद्ध समालोचक प्रमोद वर्मा थे। तब उन्होंने सुझाया था कि ’षरद जोषी स्मृति प्रसंग में एक बार नईम जी को बुलाया जावे।’ हम लोगों ने सम्पर्क किया, तब नईमजी ने अस्वस्थता के कारण नहीं आ पाने की विवषता बतलाई थी।
मैं नईम साहब से कभी नहीं मिल पाया। मैंने उनका कोई चित्र भी कहीं देखा हो ऐसा याद नहीं है। पर स्तरीय पत्रिकाओं में उनकी छपी नज़्मों को देखता रहा हूं। कुछ बरस पहले उज्जैन गया था। साथ में परिवार था। तब कार में उज्जैन से भोपाल लौटते समय देवास के इन्डियन काॅफी हाऊस में काॅफी पीने के लिए रुका था। उस समय भी मैं मिलने उनके घर नहीं जा सका था पर देवास के उस काॅफी हाऊस में नईम साहब बड़ी षिद्दत से याद आते रहे।
गद्य और पद्य की दो बड़ी हस्तियो - विष्णु प्रभाकर और नईम का अवसान एक ही दिन हुआ तब देष भर के साहित्य संगठनों ने उन्हें विनम्रतापूर्वक अपनी श्रद्धांजलि दी थी। हम लोगों ने भी उस दिन भिलाई में लगभग तीन घंटे का एक आयोजन किया था जिसमें शहर के सक्रिय लेखकों ने दोनों के साहित्यिक अवदान पर व्यापक रुप से चर्चा की थी।
विनोद साव, मुक्तनगर, दुर्ग 491001 मो. 09907196626

Tuesday, March 3, 2009

एक स्मृति अंश काका हाथरसी से शरद जोशी तक

एक स्मृति अंश काका हाथरसी से शरद जोशी तक वह बरसात की एक रिमझिम शाम थी सन् 1972 की। रिक्शे में यह हल्ला गूंजा था कि ’नागरिक बन्धुओं.. आप लोगों को यह जानकर बड़ी खुशी होगी कि हास्यरस के प्रसिद्ध कवि काका हाथरसी हमारे शहर दुर्ग में पधारे हुए हैं। उनके साथ हास्यरस में सराबोर होने के लिए आज शाम आप सब गांधी चैक बड़ा बाजार में अवश्य पधारें।’ फिर लाउडस्पीकर की एक कानफोड़ू चिंघाड़ थी। यह वह दौर था जब जनता की गर्दन टेलीविजन के दैत्याकार हाथों से मुक्त थी। और वह अपने हिसाब से सांस ले रही थी। गाॅव हो या शहर जनता मनोरजंन के लिए किसी चैपाल की शक्ल में कहीं भी बैठ जाया करती थी। तब हिन्दी कवि सम्मेलन हिन्दी फिल्मों की तरह बम्फर हिट हो रहे थे। हिन्दी के कतिपय इतिहासकारों के अनुसार ’कहना न होगा तब मंच के कई भारी भरकम कवि न केवल अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा से प्रस्फुटित हो रहे थे बल्कि हास्य रस के कवि अपने सम्पूर्ण वैभव से विस्फोट कर रहे थे।’ इनमें धीर-गंभीर कुछ व्यंग्य कवि थे जो रिस्पांस नहीं मिलने से कालान्तर में शुद्ध हास्यकवि में रुपांतरित हो गए थे। फिर भी ’कहना न होगा कि कवि सम्मेलन अपने सम्पूर्ण वैभव में था और इस वैभव को उत्तरोतर बढ़ाने में तत्कालीन हास्यकवियों का बड़ा हाथ रहा।’ बाद में इन्ही हाथों पर कवि सम्मेलन की गरिमा गिराने का आरोप लगा और कहा जाने लगा कि इन कवियों ने विदूषक का रुप धारण कर कविता को बाजारु बना दिया और उसे हद दर्जे की फूहड़ता तक पहुंचा दिया है। बहरहाल, मुझे यहां ’काका’ पर अपनी बात रखनी है कविता पर नहीं। जिस शाम काका दुर्ग आए हुए थे तब मैं किशोरावस्था में था (बकौल हुल्लड़ मुरादाबादी अब मैं अशोकावस्था में हूं )। जैसे व्यंग्य पर बात होते ही सबसे पहले परसाई याद आते हैं वैसे ही हास्य कविताओं की बात पर पहले काका हाथरसी याद आते हैं। व्यंग्य गम्भीर होता है। शायद यह गम्भीरता उसकी बौद्धिकता है। व्यंग्य में बौद्धिकता का आग्रह है जबकि हास्य में निष्कपटता का। निष्कपट मन हास्य को अतिरेक देता है। हास्य में हंसने और हंसाने वाले दोनों का मन निर्मल होता है। कम से कम उस समय तक तो निर्मल हो ही जाता है जब तक हंसने हंसाने का काम हो रहा हो। जब काका अपनी बात कह रहे होते थे और उनके मुख से हास्य झर रहा होता था तब वे बड़े आत्मीय बुजुर्ग की तरह लगा करते थे। भरे बाजार में जब वे कविता सुना रहे थे तब ऐसे लगता घर का कोई बुजुर्ग चारपाई में लेटकर नाती पोतों को कहानियाॅ सुना रहा है या कोई पहेली बुझा रहा है। ’अच्छा काका वो काकी वाली सुनाओ।’ ’अच्छा लो बेटा अपनी काकी वाली सुन।’ ’अच्छा वो भिण्डी बाजार वाली .. फिर वो चोर बाजार वाली..’ फिर तो काका अपने फार्म में आ गए। और चलने लगी काका की कुण्डलियाॅ ’कह काका कविराय...’ गिरधर की कुण्डलियों को उनके बाद उन कुण्डलियों को और भी लोकप्रिय बनाया काका हाथरसी ने। बाल श्रोताओं को काका की फुलझड़ियाॅ इतनी प्यारी लगती थीं कि बच्चों को कण्ठस्थ हो जाया करती थीं। स्कूल या घरों में ये फुलझड़ियाॅ सांस्कृतिक कार्यक्रमों में या अंत्याक्षरी प्रतियोगिताओं में धड़ल्ले से उपयोग हुआ करती थीं। बच्चे जोश में आकर उनकी रचनाओं का पाठ करते थे। दरअसल मुझे काका हाथरसी की कविताएं बालमन के ज्यादा करीब लगती थी। उनकी रचनाएं बालसाहित्य के सर्वथा अनुकुल लगती थीं। उन्होंने जीते जी अपने नाम पर हास्य व्यंग्य साहित्य के लिए अपने समय में सबसे बड़े पुरस्कार की शुरुआत की। काका हाथरसी पुरस्कार नाम के इस अलंकरण को तब बड़ी प्रतिष्ठा मिली थी जब इसे हिन्दी व्यंग्य के शिखर पुरुष शरद जोशी को दिया गया था। तब पाटकर हाॅल, बम्बई में दिए गए उस पुरस्कार वितरण समारोह में शरद जोशी ने पहली बार गद्य व्यंग्य का पाठ किया था। शरदजी की इस सर्वथा नवीन प्रस्तुति ने गद्य रचना पाठ की नयी परम्परा को जन्म दिया। और शरदजी हम सबके दिलों में छा गए थे। विनोद साव, मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ मो. 9907196626

एक स्मृति अंश काका हाथरसी से शरद जोशी तक

एक स्मृति अंश काका हाथरसी से शरद जोशी तक वह बरसात की एक रिमझिम शाम थी सन् 1972 की। रिक्शे में यह हल्ला गूंजा था कि ’नागरिक बन्धुओं.. आप लोगों को यह जानकर बड़ी खुशी होगी कि हास्यरस के प्रसिद्ध कवि काका हाथरसी हमारे शहर दुर्ग में पधारे हुए हैं। उनके साथ हास्यरस में सराबोर होने के लिए आज शाम आप सब गांधी चैक बड़ा बाजार में अवश्य पधारें।’ फिर लाउडस्पीकर की एक कानफोड़ू चिंघाड़ थी। यह वह दौर था जब जनता की गर्दन टेलीविजन के दैत्याकार हाथों से मुक्त थी। और वह अपने हिसाब से सांस ले रही थी। गाॅव हो या शहर जनता मनोरजंन के लिए किसी चैपाल की शक्ल में कहीं भी बैठ जाया करती थी। तब हिन्दी कवि सम्मेलन हिन्दी फिल्मों की तरह बम्फर हिट हो रहे थे। हिन्दी के कतिपय इतिहासकारों के अनुसार ’कहना न होगा तब मंच के कई भारी भरकम कवि न केवल अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा से प्रस्फुटित हो रहे थे बल्कि हास्य रस के कवि अपने सम्पूर्ण वैभव से विस्फोट कर रहे थे।’ इनमें धीर-गंभीर कुछ व्यंग्य कवि थे जो रिस्पांस नहीं मिलने से कालान्तर में शुद्ध हास्यकवि में रुपांतरित हो गए थे। फिर भी ’कहना न होगा कि कवि सम्मेलन अपने सम्पूर्ण वैभव में था और इस वैभव को उत्तरोतर बढ़ाने में तत्कालीन हास्यकवियों का बड़ा हाथ रहा।’ बाद में इन्ही हाथों पर कवि सम्मेलन की गरिमा गिराने का आरोप लगा और कहा जाने लगा कि इन कवियों ने विदूषक का रुप धारण कर कविता को बाजारु बना दिया और उसे हद दर्जे की फूहड़ता तक पहुंचा दिया है। बहरहाल, मुझे यहां ’काका’ पर अपनी बात रखनी है कविता पर नहीं। जिस शाम काका दुर्ग आए हुए थे तब मैं किशोरावस्था में था (बकौल हुल्लड़ मुरादाबादी अब मैं अशोकावस्था में हूं )। जैसे व्यंग्य पर बात होते ही सबसे पहले परसाई याद आते हैं वैसे ही हास्य कविताओं की बात पर पहले काका हाथरसी याद आते हैं। व्यंग्य गम्भीर होता है। शायद यह गम्भीरता उसकी बौद्धिकता है। व्यंग्य में बौद्धिकता का आग्रह है जबकि हास्य में निष्कपटता का। निष्कपट मन हास्य को अतिरेक देता है। हास्य में हंसने और हंसाने वाले दोनों का मन निर्मल होता है। कम से कम उस समय तक तो निर्मल हो ही जाता है जब तक हंसने हंसाने का काम हो रहा हो। जब काका अपनी बात कह रहे होते थे और उनके मुख से हास्य झर रहा होता था तब वे बड़े आत्मीय बुजुर्ग की तरह लगा करते थे। भरे बाजार में जब वे कविता सुना रहे थे तब ऐसे लगता घर का कोई बुजुर्ग चारपाई में लेटकर नाती पोतों को कहानियाॅ सुना रहा है या कोई पहेली बुझा रहा है। ’अच्छा काका वो काकी वाली सुनाओ।’ ’अच्छा लो बेटा अपनी काकी वाली सुन।’ ’अच्छा वो भिण्डी बाजार वाली .. फिर वो चोर बाजार वाली..’ फिर तो काका अपने फार्म में आ गए। और चलने लगी काका की कुण्डलियाॅ ’कह काका कविराय...’ गिरधर की कुण्डलियों को उनके बाद उन कुण्डलियों को और भी लोकप्रिय बनाया काका हाथरसी ने। बाल श्रोताओं को काका की फुलझड़ियाॅ इतनी प्यारी लगती थीं कि बच्चों को कण्ठस्थ हो जाया करती थीं। स्कूल या घरों में ये फुलझड़ियाॅ सांस्कृतिक कार्यक्रमों में या अंत्याक्षरी प्रतियोगिताओं में धड़ल्ले से उपयोग हुआ करती थीं। बच्चे जोश में आकर उनकी रचनाओं का पाठ करते थे। दरअसल मुझे काका हाथरसी की कविताएं बालमन के ज्यादा करीब लगती थी। उनकी रचनाएं बालसाहित्य के सर्वथा अनुकुल लगती थीं। उन्होंने जीते जी अपने नाम पर हास्य व्यंग्य साहित्य के लिए अपने समय में सबसे बड़े पुरस्कार की शुरुआत की। काका हाथरसी पुरस्कार नाम के इस अलंकरण को तब बड़ी प्रतिष्ठा मिली थी जब इसे हिन्दी व्यंग्य के शिखर पुरुष शरद जोशी को दिया गया था। तब पाटकर हाॅल, बम्बई में दिए गए उस पुरस्कार वितरण समारोह में शरद जोशी ने पहली बार गद्य व्यंग्य का पाठ किया था। शरदजी की इस सर्वथा नवीन प्रस्तुति ने गद्य रचना पाठ की नयी परम्परा को जन्म दिया। और शरदजी हम सबके दिलों में छा गए थे। विनोद साव, मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ मो. 9907196626

Saturday, February 28, 2009

मोहल्ला महोत्सव

व्यंग्य:
मोहल्ला महोत्सव
- विनोद साव

खिड़कियों से हवा का झोंका आया तो कमरा मोहल्लाछाप गन्ध से भर गया जिसमें घूरे और नाली के संयुक्त गठबन्धन की गन्ध स्पष्ट थी। गठबन्धन की राजनीति से मोहल्ले के घूरे और नाली भी अपने आपको नहीं बचा पाए थे। इसलिए कभी शहर का सबसे खूबसूरत माना जाने वाला यह मोहल्ला भी उस क्षुद्र राजनीति का शिकार हो गया था जिसकी बजबजाती गन्दगी पूरे देेश की व्यवस्था में सड़ान्ध पैदा कर रही है।
इस प्रदूषण के भभके से घर के सदस्यों को बचाने के लिए मैंने खिड़की बन्द करने की कोशिश की तो बाहर से किसी के गाने की आवाज आई। थोड़ी देर में वह गायक कलाकार सशरीर ड्राइंगरु में घुस आया। मैंने देखा वे मोहल्ले के समाजसेवी साहूजी हैं। उन्होंने अब भी अपना गाना जारी रखा ’मेरी गलियों में न रखेंगे कदम आज के बाद.....।’
मैंने कहा ’आप गाते हैं तो ठीक से गाइए .. और तेरी गली को मेरी गली मत बतलाइए।’
वे बोले ’जैसे देश और उसकी राजनीति में उल्टी गंगा बह रही है। वैसे ही हमारे मोहल्ले की नाली भी अब उल्टी बह रही है। सीधी बहने वाली नाली अपने रास्ते जाती है पर जब वह उल्टी बहती है तो सड़क पर आ जाती है। गलियों में फेैल जाती है। जब बजबजाती नाली की अंतहसलिला उल्टी धार बहेगी तो मोहल्ले में रहने वालों का गाना बजाना भी उल्टा ही चलेगा। इसलिए हम गा रहे हैं कि ’मेरी गलियों में ना रखेंगे कदम आज के बाद ..।’
मैंने कहा ’आप इस उल्टी गंगा का राज कहिए?’ तो वे बोले कि ’मतलब साफ है। मोहल्ले की सारी नालियाॅ आज सड़क पर आ गई है। सब तरफ नालियों का कालाचिट्टा पानी बह रहा है उसकी बदबू फैेल गई है। मेरी गली में चलकर आप देखें तो वहाॅ पाॅव रखने की जगह नहीं है। ऐसे में हमने गाना बिल्कुल ठीक गाया है।’
’तो अब आपका क्या विचार है?’ मैंने टोह ली तो वे बोले ’जब सबकुछ उल्टा पुल्टा चल रहा है तो हम समझते हैं कि चलिए हम सब अपने मोहल्ले की गन्दगी को ही हाईलाईट करें। जिनके पास अच्छा अच्छा है तो अपने अच्छे का प्रदर्शन कर रहे है। लेकिन हमारी किस्मत में कचरों का पहाड़, नालियों की गंगाजमुना, अन्धेरों का साम्राज्य, सड़कों पर चाॅंद की तरह दाग व गड्ढे, धूल गुबार का वैभव और लाउडस्पीकरों का शंखनाद है। मैं कहता हूं कि यह कीर्तिमान भी क्या कम है। शहर में गन्दगी का यह आलम कितने शहरों को मयस्सर है। अपनी बदनसीबी को ही खुशनसीबी मान लें जो ये दिन देखने को मिल रहे हैं।’
अपने मोहल्ले का जीवन्त चित्र खींच लेने की उनकी कला से मैं प्रभावित हुआ। उनका हौसला बढ़ाते हुए मैंने कहा ’बहुत खूब.. तो फिर क्या सोचा है आपने.. हो जाए!’
’हो जाए ! इस बार तो मोहल्ला महोत्सव हो जाए।’ वे उत्साह से भर उठे ’सेलीब्रेट करने के लिए अपने पास कोई कम आइटम नहीं है। नया साल अभी ज्यादा पुराना नहीं हुआ है॥ बसंत की बयार बह रही है और होली हुड़दंग भी सामने है। मोहल्ले की गन्दगी को हम बढचढ़कर बतावेंगे तो कुछ न कुछ तो हो ही जाएगा।’
अब बिना रुके एक सांस में वे अपनी योजना बताने लगे ’फटे पुराने कागजों, मैले कुचैले कपड़ों, टीन टप्परों, घास फूसों, गोबर और कीचड़ों को मिलाकर हम मोहल्ले के बीच चैराहे पर मिलीजुली सरकार की तरह एक पन्डाल खडा करेंगे जो किसी महोत्सव में बनाए गए आधुनिक ’हट’ की तरह होगा। यह मोहल्ला महोत्सव का मुख्य आयोजन स्थल होगा। इस आयोजन स्थल पर आने वाले अतिथियों को पहले मोहल्ला दर्शन करवाया जावेगा। उन्हें मोहल्ले के सारे डम्प स्टेशनों का दर्शन और गलगलाती नालियों व शौचालयों से सीधा साक्षात्कार करवाया जाएगा।’
’फिर मुख्य समारोह में आप मोहल्ले को सबसे ज्यादा गन्दा करने वालों, सबसे ज्यादा कचरा फैेलाने वालों और सबसे ज्यादा शोर प्रदूषण करने वालों को पुरस्कृत कर सकते हैं। उन्हें गन्दगी गणमान्य, कचरा कुमार और नाली नरेश जैसे अलंकरणों से सम्मानित कर सकते हैं। इस तरह से मनाएंगे आप मोहल्ला महोत्सव।’ मैंने राह दिखाई।
’ये हुई ना बात..।’ कहकर वे उल्लास से भर गए और कहा कि ’आपने मेरे मन की बात कह दी।’ अब जाता हूं मैं उत्सव की तैयारी में और मोहल्ले वालों से लेता हूं चन्दा मोहल्ला महोत्सव के लिए।’ वे किसी पार्टी के उत्साही कार्यकर्ता की तरह बाहर हो गए मोहल्ला महोत्सव की तैयारी में।

विनोद साव, मुक्तनगर, दुर्ग 491001 मो. 9907196626

21 वीं सदीं के व्यंग्यकार:

बीसवीं सदी में हिंदी व्यंग्य की समृद्ध परम्परा रही है जिसे अंतिम और निर्णायक रुप से परसाई युग मान लिया गया। इस बीते युग ने हिंदी व्यंग्य की जो पुख्ता जमीन तैयार की है उस जमीन पर खड़े रहना भी बाद की पीढ़ी के व्यंग्य लेखकों के लिए एक बड़ी चुनौती है। आज जब इक्कीसवी संदी का एक दषक निकलने को है तब आज के सक्रिय व्यंग्यकारों के लिए लिखने का मतलब है अपनी दमदार पुरखौती के सामने खड़े होना। कविता की ही तरह यह विकट चुनौती व्यंग्य लिखने वालों के सामने भी है। कुछ इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर व्यंग्य का यह स्तंभ ’21वीं सदीं के व्यंग्यकार’ शुरु किया जा रहा हैै जिसमें हम आज के सक्रिय व्यंग्यकर्मियों को लगातार छापने के बहाने व्यंग्य की आगे की संभावनओं को तलाषने का भी यत्न करेंगे। हर लेखक की रचना हमें ज्ञान चतुर्वेदी की ही पंक्ति में खड़े चर्चित व्यंग्यकार विनोद साव के सौजन्य से प्राप्त होगी उनकी अपनी माकूल टिप्पणी के साथ। इस पहली कड़ी की शुरुवात हम ज्ञान चतुर्वेंदी के व्यंग्य से कर रहे हैं।

ज्ञान चतुर्वेंदी व्यंग्य साहित्य में पिछले दो दषकों से सक्रिय हैं हिंदी व्यंग्यकारों की भीड़ में ज्ञान का लेखन तकरीबन ’ए फेस एबव द क्राउड’ की तरह है। हिंदी व्यंग्य अपनी विरासत को और कितना समृद्ध कर पाया है यह चर्चा बाद में होगी पर प्रकाषन की दृष्टि से ज्ञान चतुर्वेदी समृद्ध हुए हैं और फिलहाल पत्र पत्रिकाओं में छाए हुए हैं। इसमें सन्देह नहीं कि ज्ञान ने बगैर आलोचकों के समर्थन के अपनी जमीन को खुद पुख्ता किया है। कथ्य, भाषा और शैली के स्तर पर भी वे एक प्रयोगधर्मी लेखक बनकर उभरे हैं। उनकी भाषा में एक खास किसम का दरदरा पन है। लगता है वे बिगड़ी हुई शक्तियों पर बघनखा पहनकर मार करना चाहते हैं। वह भी उनकी छाती पर सवार होकर बघनखे से उनकी छाती खुरचते हुए। उनका यही निजी और मौलिक दरदरापन उन्हें अपने समय के लेखकों से अलग खड़ा करता है उन्हें अपनी ज्यादा प्रभावकारी मुद्रा में। व्यंग्य लिखते समय उनमें एक खास किसम की मस्ती भी होती है, उनकी इसी मस्ती से भरी हुई एक रचना ’हिंदी में मनहूस रहने की परंपरा’ उदंतीÛकाॅम के पाठकों के लिए यहां प्रस्तुत है।
Û विनोद साव

My test


आज मेरे ब्लॉग लेखन का पहला दिन है। मुझे खुशी है कि अब मैं अपनी बातों को आप सब के सामने रख सकूँगा।
(ई-मेल से प्राप्त विनोद साव का यह चित्र प्रसिद्ध कहानीकार उदयप्रकाश ने लिया है अपने निवास )