Tuesday, March 3, 2009

एक स्मृति अंश काका हाथरसी से शरद जोशी तक

एक स्मृति अंश काका हाथरसी से शरद जोशी तक वह बरसात की एक रिमझिम शाम थी सन् 1972 की। रिक्शे में यह हल्ला गूंजा था कि ’नागरिक बन्धुओं.. आप लोगों को यह जानकर बड़ी खुशी होगी कि हास्यरस के प्रसिद्ध कवि काका हाथरसी हमारे शहर दुर्ग में पधारे हुए हैं। उनके साथ हास्यरस में सराबोर होने के लिए आज शाम आप सब गांधी चैक बड़ा बाजार में अवश्य पधारें।’ फिर लाउडस्पीकर की एक कानफोड़ू चिंघाड़ थी। यह वह दौर था जब जनता की गर्दन टेलीविजन के दैत्याकार हाथों से मुक्त थी। और वह अपने हिसाब से सांस ले रही थी। गाॅव हो या शहर जनता मनोरजंन के लिए किसी चैपाल की शक्ल में कहीं भी बैठ जाया करती थी। तब हिन्दी कवि सम्मेलन हिन्दी फिल्मों की तरह बम्फर हिट हो रहे थे। हिन्दी के कतिपय इतिहासकारों के अनुसार ’कहना न होगा तब मंच के कई भारी भरकम कवि न केवल अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा से प्रस्फुटित हो रहे थे बल्कि हास्य रस के कवि अपने सम्पूर्ण वैभव से विस्फोट कर रहे थे।’ इनमें धीर-गंभीर कुछ व्यंग्य कवि थे जो रिस्पांस नहीं मिलने से कालान्तर में शुद्ध हास्यकवि में रुपांतरित हो गए थे। फिर भी ’कहना न होगा कि कवि सम्मेलन अपने सम्पूर्ण वैभव में था और इस वैभव को उत्तरोतर बढ़ाने में तत्कालीन हास्यकवियों का बड़ा हाथ रहा।’ बाद में इन्ही हाथों पर कवि सम्मेलन की गरिमा गिराने का आरोप लगा और कहा जाने लगा कि इन कवियों ने विदूषक का रुप धारण कर कविता को बाजारु बना दिया और उसे हद दर्जे की फूहड़ता तक पहुंचा दिया है। बहरहाल, मुझे यहां ’काका’ पर अपनी बात रखनी है कविता पर नहीं। जिस शाम काका दुर्ग आए हुए थे तब मैं किशोरावस्था में था (बकौल हुल्लड़ मुरादाबादी अब मैं अशोकावस्था में हूं )। जैसे व्यंग्य पर बात होते ही सबसे पहले परसाई याद आते हैं वैसे ही हास्य कविताओं की बात पर पहले काका हाथरसी याद आते हैं। व्यंग्य गम्भीर होता है। शायद यह गम्भीरता उसकी बौद्धिकता है। व्यंग्य में बौद्धिकता का आग्रह है जबकि हास्य में निष्कपटता का। निष्कपट मन हास्य को अतिरेक देता है। हास्य में हंसने और हंसाने वाले दोनों का मन निर्मल होता है। कम से कम उस समय तक तो निर्मल हो ही जाता है जब तक हंसने हंसाने का काम हो रहा हो। जब काका अपनी बात कह रहे होते थे और उनके मुख से हास्य झर रहा होता था तब वे बड़े आत्मीय बुजुर्ग की तरह लगा करते थे। भरे बाजार में जब वे कविता सुना रहे थे तब ऐसे लगता घर का कोई बुजुर्ग चारपाई में लेटकर नाती पोतों को कहानियाॅ सुना रहा है या कोई पहेली बुझा रहा है। ’अच्छा काका वो काकी वाली सुनाओ।’ ’अच्छा लो बेटा अपनी काकी वाली सुन।’ ’अच्छा वो भिण्डी बाजार वाली .. फिर वो चोर बाजार वाली..’ फिर तो काका अपने फार्म में आ गए। और चलने लगी काका की कुण्डलियाॅ ’कह काका कविराय...’ गिरधर की कुण्डलियों को उनके बाद उन कुण्डलियों को और भी लोकप्रिय बनाया काका हाथरसी ने। बाल श्रोताओं को काका की फुलझड़ियाॅ इतनी प्यारी लगती थीं कि बच्चों को कण्ठस्थ हो जाया करती थीं। स्कूल या घरों में ये फुलझड़ियाॅ सांस्कृतिक कार्यक्रमों में या अंत्याक्षरी प्रतियोगिताओं में धड़ल्ले से उपयोग हुआ करती थीं। बच्चे जोश में आकर उनकी रचनाओं का पाठ करते थे। दरअसल मुझे काका हाथरसी की कविताएं बालमन के ज्यादा करीब लगती थी। उनकी रचनाएं बालसाहित्य के सर्वथा अनुकुल लगती थीं। उन्होंने जीते जी अपने नाम पर हास्य व्यंग्य साहित्य के लिए अपने समय में सबसे बड़े पुरस्कार की शुरुआत की। काका हाथरसी पुरस्कार नाम के इस अलंकरण को तब बड़ी प्रतिष्ठा मिली थी जब इसे हिन्दी व्यंग्य के शिखर पुरुष शरद जोशी को दिया गया था। तब पाटकर हाॅल, बम्बई में दिए गए उस पुरस्कार वितरण समारोह में शरद जोशी ने पहली बार गद्य व्यंग्य का पाठ किया था। शरदजी की इस सर्वथा नवीन प्रस्तुति ने गद्य रचना पाठ की नयी परम्परा को जन्म दिया। और शरदजी हम सबके दिलों में छा गए थे। विनोद साव, मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ मो. 9907196626

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