Saturday, May 30, 2009

खतोकिताबत पर बड़ा भरोसा था उन्हें

(07272) 256311 नईम, 7/6, राधागंज, देवास 455001 प्रिय भाई विनोद
परसाई जी पर हंस में पढ़ते हुए मन हुआ कि ख़त लिखा जाये क्योंकि निरंजन महावर के हवाले से शीर्षक उठाया गया है और बात भी सच है। तुम्हारे इस खुले स्वीकार में जो नाम आये वो कमोवेष सब मेरे परिचित और आत्मीय हैं कारण परसाई जी ही है। हाॅ भाई महावर मेरे सीनियर और होस्टलमेट रहे सागर विष्वविद्यालय में। उस समय एक ही विष्वविद्यालय हुआ करता था। परसाई जी के मार्फत शरद भाई से जुड़ा था और ये जुड़ाव कुछ ऐसा हुआ कि आज तक पोषोड़ी नहीं फटी। शरद भाई मेरे हम जुल्फ़ (साढ़ू) थे। शरद भाई के गुजरने के बाद पुरसे का ख़त मैंने परसाई जी को लिखा था। परसाई जी मेरे जबलपुर के थे और शरद भाई से भोपाल में मुलाकात हुई थी। बीच में तकरार भी रही लेकिन परसाई जी ने नईम को नईम की तरह देखा।
व्यंग्यकारों की जमात खड़ी हो गई मध्यप्रदेष में। मुक्तिबोध, भाऊ समर्थ के संसर्ग से भी अछूते लोग नयी पीढ़ी के नहीं रहे।
बहरहाल आज इतना ही। राजनांदगांव दुर्ग गुजर कर रायपुर आया गया हूं दुर्ग रुकना नहीं हुआ और अब ख़त से पहुंच रहा हॅंॅूं,
हस्ताक्षर 9.9.8 नईम नईम साहब का यह पत्र मुझे तब प्राप्त हुआ जब ’हंस’ अगस्त’08 के अंक में उन्होंने मेरा एक आलेख पढ़ा। हंस में वह आलेख ’जिन्होंने मुझे बिगाड़ा’ स्तम्भ के अंतर्गत ’डुबोया मुझको परसाई ने’ शीर्षक से छपा था। जिसे पढ़कर उन्होंने प्रतिक्रिया के रुप में उपरोक्त पत्र लिखा था। उसके बाद उनके दिए हुए फोन नम्बर पर उनसे एक लम्बी बातचीत भी हुई थी। तब उन्होंने कहा था कि जो बातें आप मुझसे कह रहे हैं वे ख़त में लिखकर भी मुझे भेजें तब मैंने ऐसा ही किया था।
ख़तो-किताबत पर कितना भरोसा था नईम साहब को ! खतो-किताबत इन शब्दों को जानते हुए भी इन्हें पहली बार नईम साहब से ही सुना। उनके एक ही पत्र से यह जाहिर होता है कि वे ख़तो-किताबत यानी पत्र-व्यवहार के प्रति कितने संजीदा इन्सान थे। अमूमन आज फोन और मोबाइल के इस समय में यह चलन बहुत कम हो गया है वरना एक समय तो जवाबी पोस्टकार्ड का चलन भी था और डाक घर वाले जवाबी पोस्ट कार्ड भी छापा करते थे। उस समय आत्मीय पत्र-व्यवहार की ललक रखने वाले लोग जवाबी पोस्ट कार्ड भी भेजा करते थे। यदि डाक घर का मुद्रित जवाबी पोस्ट कार्ड न हो तो सामान्य पोस्टकार्ड पर जवाबी पोस्टकार्ड लिखकर और उसे अपने पत्र के साथ नत्थी कर भी भेजा करते थे। तब वह जवाबी कार्ड पावती का काम भी कर लेता था और उस पर अपने प्रियजन की लिखी मीठी मीठी बातें भी भेजने वाले तक पहुंच जाती थीं।
उस समय के कई प्रसिद्ध लेखक भी पत्र-व्यवहार को बड़े शौक मिजाजी से पूरा करते थे। कई रंगों के मोहक कागज और लिफाफे व अंतरदेषीय वे रखा करते थे। रंगीन कलमों से उन पत्रों को अपनी लेखनी से सुसज्जित किया करते थे फिर आकर्षक डाक टिकट लगा कर उसे बड़े रुमानी ढंग से प्रेमीजनों को भेजा करते थे। इनमें लोकप्रिय कथाकार कमलेष्वर भी थे।
नईम साहब अपने इस पत्र में आत्मीय और बौद्धिक लगते हैंे। पत्र के माध्यम से वे अपने रिष्तों को जीवन्त बनाने की कोषिष करते हुए से लगते हैं।
मैंने नईम साहब की यह चिट्ठी पाते ही अपने प्रिय मार्गदर्षक रमाकांत श्रीवास्तव को फोन लगाया और बताया। वे छूटते ही बोले कि ’नईम साहब खतोकिताबत के बड़े हिमायती हैं। और मैं नईम को हिन्दुस्तान के पांच बड़े गीतकारों में से एक मानता हूं।’
दमोह के किसी प्रेमी पाठक गफूर तायर का पत्र मिला है। उन्होंने पन्द्रह साल पढ़े मेरे उपन्यास ’चुनाव’ के अंष को व्यंग्य की एक पत्रिका में पढ़कर याद किया है। यह पहली बार हुआ जब किसी पाठक ने मुझे ’तुम’ कहकर पत्र में जगह जगह सम्बोधित किया है। मुझे लगा कि वे कोई उम्र दराज इन्सान होंगे। उनके दिए मोबाइल नम्बर पर मैंने उनसे बात की तब मेरा अनुमान सही निकला। वे रिटायर्ड लेक्चरर हैं। उन्होंने बातचीत के दौरान बताया कि नईम साहब की बिटिया नईम की स्मृति में कुछ पत्र आदि संजोने का काम कर रही हैं। आप उन्हें कुछ सामग्री भेज दें। मैंने नईम साहब की बिटिया डाॅ. समीरा से बात की। उन्होंने इस पर अपनी सहमति जताई और मुझे कुछ भेजने के लिए कहा। तब यह छोटा सा संस्मरण जैसा कुछ लिखा है। फोन पर समीरा जी से बातचीत करने पर ऐसा लगा कि उन्हें साहित्य और साहित्यकार समाज के समीकरणों की बड़ी पकड़ है। साथ ही अपने पिता के साहित्यिक व्यक्तित्व के बारीक रेषों की भी उन्हें गहरी समझ है।
नईम शरद जोषी के साढ़ू थे, पत्र में उन्होंने लिखा भी है कि ’शरद भाई मेरे हम जुल्फ़ (साढ़ू) थे।’ इधर दुर्ग मे ंहम लोग लगभग बीस बरस से ’षरद जोषी स्मृति प्रसंग’ का आयोजन करते आ रहे है। जब भिलाई में पुदमलाल पुन्नालाल बख्शी सृजनपीठ के अध्यक्ष प्रसिद्ध समालोचक प्रमोद वर्मा थे। तब उन्होंने सुझाया था कि ’षरद जोषी स्मृति प्रसंग में एक बार नईम जी को बुलाया जावे।’ हम लोगों ने सम्पर्क किया, तब नईमजी ने अस्वस्थता के कारण नहीं आ पाने की विवषता बतलाई थी।
मैं नईम साहब से कभी नहीं मिल पाया। मैंने उनका कोई चित्र भी कहीं देखा हो ऐसा याद नहीं है। पर स्तरीय पत्रिकाओं में उनकी छपी नज़्मों को देखता रहा हूं। कुछ बरस पहले उज्जैन गया था। साथ में परिवार था। तब कार में उज्जैन से भोपाल लौटते समय देवास के इन्डियन काॅफी हाऊस में काॅफी पीने के लिए रुका था। उस समय भी मैं मिलने उनके घर नहीं जा सका था पर देवास के उस काॅफी हाऊस में नईम साहब बड़ी षिद्दत से याद आते रहे।
गद्य और पद्य की दो बड़ी हस्तियो - विष्णु प्रभाकर और नईम का अवसान एक ही दिन हुआ तब देष भर के साहित्य संगठनों ने उन्हें विनम्रतापूर्वक अपनी श्रद्धांजलि दी थी। हम लोगों ने भी उस दिन भिलाई में लगभग तीन घंटे का एक आयोजन किया था जिसमें शहर के सक्रिय लेखकों ने दोनों के साहित्यिक अवदान पर व्यापक रुप से चर्चा की थी।
विनोद साव, मुक्तनगर, दुर्ग 491001 मो. 09907196626

8 comments:

  1. bahut khoob!
    anand aagaya
    badhai.................

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  2. बहुत अच्छा आन्नद आया पढ कर ।

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  3. विष्णु प्रभाकर जी और नईमजी की आत्मा को शान्ति मिले और आपके ब्लाग को ख्याति। शुभकामनाएं।

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  4. नईम साहेब से इस नाचीज़ की भी एक बार ख़त के जरिए मुलाकात हुई थी..
    नईम साहेब जितने बडे़ गीतकार थे, उससे ज्यादा कहीं एक हौसलाअफ़जाई और रहनुमाई करने वाले संरक्षक इंसान...

    धन्यवाद कि आपके जरिए फिर याद ताज़ा हो आई...
    शुभकामनाएं....

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  5. paryaas achcha hai asse hi likhte rahe aapki post ka intjaar rahta hai..bhot khub...

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  6. आज आपका ब्लॉग देखा.... बहुत अच्छा लगा. मेरी कामना है कि आपके शब्दों को नये अर्थ, नयी ऊंचाइयां एयर नयी ऊर्जा मिले जिससे वे जन-सरोकारों की सशक्त अभिव्यक्ति का सार्थक माध्यम बन सकें.
    कभी समय निकाल कर मेरे ब्लॉग पर पधारें-
    http://www.hindi-nikash.blogspot.com

    सादर-
    आनंदकृष्ण, जबलपुर
    mobile : 09425800818

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